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छन न न नऽऽऽ🎵🎶🎶

 " ....... छन न न नऽऽऽऽऽ 🎵🎶🎶


" ..... और दर्पण/आईना मेरे हाथ से फिसल कर, फ़र्श पे गिरकर टूट गया !!
..
मात्र 7 वर्ष की मैं, अपनी आदतानुसार आईने में खुद को निहार रही थी की अचानक आईना मेरे हाथों से फिसलकर फ़र्श पर गिरा और गिरते ही दो टुकड़ों में बट गया, क्योंकि वुडन फ्रेम में बंधा वो आईना वज़नदार था, जो मेरे छोटे- छोटे हाथों में पूरा समा नहीं पाया। और अचानक आईने के यू टूट जाने से मैं काफी घबरा गई।
और घबराकर मैंने दर्पण अलमारी के नीचे छुपा दिया।
दरअसल वह घबराहट नहीं घबराहट से अधिक डर था ।
डर इस बात की थी, कि अगर मेरे पापा को इस टूटे हुए दर्पण का पता चला तो वे बहुत गुस्सा होएंगे क्योंकि कुछ हफ़्ते पहले ही वह "वुडेन फ्रेम आईना" पापा ले कर आये थे।

अपने कमरे की अलमारी के नीचे आईने को जल्दी से छुपा कर मैं किचन में मम्मी के पास जा कर, अपनी गलती छुपाने के रास्ते ढूंढ़ने लगी, कि यदि मैं मम्मी से कह दूं कि आईना मुझसे टूट गया है तो वो शायद मुझे पापा की डांट से बचाने का प्रयास करे, पर मम्मी से भी अपनी गलती कह नहीं सकी। क्योंकि मुझे मम्मी से भी डर था की कहीं मम्मी ने ही डांट दिया तो?

हालांकि पापा गुस्सा तो नहीं करते परन्तु एक डर जरूर था। जो की हर बच्चे में होना आवश्यक होता हैं ताकि गलती न हो, और हो जाए तो स्वीकार करने का साहस भी होना चाहिए जो उस वक़्त मुझमें नहीं था।

दूसरी सुबह जब पापा ने टूटा हुआ आईना देखकर सबसे पूछताछ की ..
"यह दर्पण किस से टूटा हैं? "
मम्मी, और मेरी दोनों बहनों ने एक स्वर में 'ना' में उत्तर दिया ।
फिर बारी आई मेरी ....
जैसे ही पापा ने मेरी ओर प्रश्नसूचक दृष्टि डाली
मैंने घबराहट छुपाकर पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी आँखें बड़ी करते हुए कहा-
"नहीं, पापा! बिल्कुल नहीं, मैं नहीं तोड़ी, मैं जानती भी नहीं।"
.......
मेरे पापा जो की पेशे से एक वकील हैं उन्हें मेरे झूठ को भांपते समय नहीं लगा, वे तुरंत ही समझ गए की आईना मुझसे ही टूटा है।
हालांकि पापा गुस्सा नहीं हुए। क्योंकि वे सिर्फ इतना चाहते थे की मैं सच बोलू , और सच बोलकर अपनी गलती स्वीकार कर लूं। जो सही भी होता मेरे भविष्य के लिये।
पर डांट पड़ने के डर ने मुझे सच बोलने नहीं दिया। और मैं आँखों में आँखे मिलाकर झूठ बोल गई।

इसीलिए उन्होंने मुझे मेरी गलती स्वीकारने का एक मौका देने की योजना बनाई । ताकि मैं फिर कभी भी भविष्य में डांट पड़ने के डर से झूठ न बोलू और हमेशा अपनी गलती स्वीकारने का साहस रखू, चाहे भविष्य में कभी कोई कितनी भी छोटी या बड़ी गलती क्यों न हो जाए पर मुझमें सच बोलने और गलती स्वीकारने का साहस हमेशा रहें।

अपनी योजनानुसार, अगले दिन कोर्ट जाते हुए पापा ने मझसे कहा-
"वो जो कल आईना टूटा था न??"

....... 
और मैं जो की पूरी तरह से निश्चिंत थी की पापा ने मेरे झूठ पर यकीन कर लिया है , इसलिए आराम से बिस्तर में ड्राईंग (चित्रकारी) में मग्न थी।
अचानक से फिर से टूटे हुए आईने की बात सुनकर मेरी तंद्रा टूटी और मैंने चौंककर (आँखो को पिछली बार से भी ज्यादा चौड़ी कर) पापा की ओर देख कर कहा - "हाँ !! ... क्या??
पापा-"वो जो कल आईना टूट गया था न?"
मैंने कहा-"हाँ,, ...तो ......क्या .... हो गया?" (लगभग हकलाते हुए)
पापा-"तो ,जिसके हाथ से वो आईना टूटा है, उसमे उसका शक्ल दिख रहा है।"
इतना सुनते ही....
अपने हाथ से कलर पेंसिल फेंकते हुए एवं लगभग दौड़ते हुए मैं बाहर भागी उस आईने को देखने जो की अब बाहर बालकनी के एक कोने में रखा था ताकि टूटे हुए आईने के शीशे किसी को चुभ न जाए।
बड़े एहतियात से मैंने आईना उठा कर देखा तो उसमें मेरी ही शक्ल दिखाई दे रही थी ।
अब मैं घबरा गई...
और सोच में पड़ गई °°°°°°
"हे भगवान, इसमे तो सच मे मेरी शक्ल दिखाई दे रही है! अब क्या करूं?"
मैंने हल्के से पीछे मुड़कर देखा तो पापा कुछ दूर में मेरे पीछे खड़े मुस्कुरा रहे थे
-"क्यों? दिख रही है न? तोड़ने वाले की शक़्ल?"
पर अपने झूठ को छुपाने के लिए एक आखिरी प्रयास तो बनता था अथवा मैंने फिर कहा-
"ऐसा थोड़ी होता है? जो आईने में देखता हैं उसका ही शक्ल दिखता है।"
(हालांकि मैं कभी भी हाज़िरजवाबी नहीं रही, पर उस वक्त डर ने बना दिया था। )
और मैं वापस अपनी ड्राइंग करने चली गयी। की जैसे मैं जीत गयी अपनी गलती भी छुपा ली, डांट भी नही पड़ी और कुछ दिनों बाद नया आईना भी आ गया।
-----------------------
सालों बाद, मैं 22 वर्ष की, पर मेरी आदत नहीं बदली, आदत वही रही, बचपन की तरह, आईना निहारने वाली।
और आईना भी वहीं है 'वुडन फ्रेम' में बंधा।
आईने में नज़रे गड़ाई में चल ही रही थी कि अचानक मेज़ की ठोकर लगने से मेरे हाथ से आईना फिसलकर फ़र्श पर गिरकर टूट गया, उसी प्रकार जैसे वर्षों पहले टूटा था। डांट तो अभी भी पड़ना लाज़मी था, पर इस बार मैं घबराई नहीं, क्योंकि इस बार मुझमें साहस था भूल स्वीकारने का।
जो साहस बरसो पहले मुझमें पापा द्वारा डाली गई थी।
मैंने आईना ले जाकर बालकनी में उसी जगह रख दी जहाँ पर सालों पहले पापा ने रखा था।
शाम के समय पापा जैसे ही कोर्ट से आये, मैंने पापा को दूर से ही आते देखकर कहा-
"वो जो बचपन मे आईना टूटा था न?"
पापा ने कहा- "हाँ!!"
अब तक मेरी आंखों में आंसू आ गए थे (शायद अपनी बचपन की मासूमियत याद करते हुए की मेरी गलती पकड़ी नहीं गयी।)
पर अब समय आ गया था अपनी दोनों गलतियों को मान लेने का, अथवा मैंने कहना जारी रखा--
"....वो जो बचपन में आईना टूटा था वो मेरे से टूटा था, और आज जो टूटा वो भी मेरे से ही टूटा हैं।"
पापा -"हाँ, पता हैं, कहाँ हैं टूटा हुआ आईना?"
मैंने कहा-"बाहर रखा हैं।"
पापा ने आईना अपने हाथों में उठा कर देखा और कहा
"ठीक है, मैं फिर से बनवा दूंगा।"
......
अब सालों बाद अपनी गलती स्वीकार लेने पर मुझे सुकून था, हालांकि बचपन के उस क़िस्से के बाद फिर कभी मैंने झूठ नहीं बोला, न कभी भी कोई गलती छुपाई, पर आज गलती स्वीकार कर लेने पर राहत मिली।।
शायद यही वजह हैं की आज अगर मैं किसी को भी बड़ी दृढ़ता से, अपनी गलती छुपाते देखती हूं, झूठ बोलते देखती हूं तो अनायास ही मुझे अपने बचपन का ये किस्सा याद आ जाता हैं, अगर हर माता-पिता, या कोई भी उम्र में बड़ा व्यक्ति अपने बच्चों में सच बोलने, गलती स्वीकारने की आदतें, बचपन से डालें तो उनके भविष्य की नींव अच्छी पड़ेंगी।।💫
♥️🙋‍♀️

Comments

  1. गलती स्वीकार करने के लिए हिम्मत चाहिए,पर गलती स्वीकार कर लेने से मन का बोझ उतर जाता है।

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  2. Perfect lesson 👌 Still innocent and kid by heart ❤

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  3. Superb Writing ❤️❤️❤️❤️

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  4. Parents are the best teachers 😇 awesome post 😀

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